
कवि और कविता का नया दौर 🙏
वक्त के साथ साथ कवि सम्मेलनों की छंटा भी बदल गई, कवि अब वैसे नहीं रहे जैसों में सृजनशीलता थी, कविताओं में देश की आवाज बन जाया करते थे, मुद्दों पर हास्य व्यंग्य, वीररस पर बेबाकी से कविता की धारा प्रवाहित करते थे। अब अश्लीलता, फूहड़ता, नग्नता के जरिए वाहवाही बटोरने की स्पर्धा मची हुई है, कविता कम श्रोताओं पर टीका टिप्पणी, महिलाओं पर अमर्यादित तंज और तो और नेताओं और आयोजकों पर चालीसा पढ़ने से भी नहीं चूकते, सरकारी चालीसा पढ़ने में महारथी बन बड़े दर्जे का कवि बनने का भी गुण कवि मंचों पर सुनने को मिलता है। बहुतेरे मंच से किसी और कवि की मौलिक रचना को सुनाने का पराक्रम अब सुनने को मिलने लगा है, चुटकुले और किताबी मुक्तकों को मंच पर बेबाकी से सुनाया जाकर मान मर्यादा तक को ताक पर रख दिया गया है। हालात इसकदर मलिन कर दिए गए हैं कि श्रोताओं को भी शर्मिंदा होना पड़ रहा है। पहले कवि सम्मेलनों को श्रोता खास तवज्जों देते रहें क्योंकि कवि जनमानस की पीड़ा, वेदना, अपेक्षाओं और उनकी मंशा को शब्दों से उकेरते थे, किसी भी सरकार को आईना कवि दहाड़ दहाड़कर दिखाते थे। किंतु अब वाहियात भाषणबाजी के दरम्यान वही घिसी पीटी रचनाओं को परोसते मिलेंगे,,, बेशर्मी इतनी कि तालियां बजाने खुद गुहार लगाते भी मिलेंगे। बहरहाल साहित्य की अविरल धारा अब कुत्सित और कुंठित कथित कवियों की वजह से कलंकित और भ्रमित सी हो गई है जो साहित्य जगत के लिए विचारणीय और चिंतनीय सबब है।
अंत में:
जब से मेरा गांव शहर हुआ है,
ये समझिए जहर हुआ है।
कल तक थी चांदनी साथ मेरे,
अब अंधेरा हमसफर हुआ है।
0निखिलेश सोनी प्रतीक ✍️